संदेश

जनवरी, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बसंत पंचमी और मन की टीस...

बसंत का आया मधुमास, कण- कण में छाया मादक रस पेड़ों पर छाइ हरियाली, बौराई आमों की डाली, फूलों से नव किसलय फूटी, छाई मनमोहक छटा अनूठी वाग्देवी की चहुं ओर पूजा होती, बस एक बात हरदम कचोटती , रह- रह कर दिल में एक टीस उभरती, नन्हे हाथों में जब कबाड़ की झोली दिखती मन वेदना से भर जाता, बचपन के बसन्त की हरियाली जब कालिख में लिपटी ठूंठा होते दिखती मुझको हर शज़र ठूंठा, हर बसंत हरियाली फीकी दिखती है जब तक इस त्रासदी की आग नही बुझती है,  विद्या देवी की पूजा मजाक सी लगती है, जब तक हर हाथों में कलम औ किताब नहीं दिखती है | यह यायावर भी बसंत पंचमी धूम धाम से मनायेगा श्वेत वसना को फूल माला चढ़ायेगा जब हर दिल में दीप शिक्षा   का प्रज्वलित हो जायेगा (यायावर प्रवीण )

क्या दुनिया सच में इतनी गरीब है ...

बचपन भी गज़ब का खूबसूरत समय होता है, न किसी प्रकार का संकोच, न किसी तरह का डर, एकदम इस दुनियां की समस्याओं से बेपरवाह, लेकिन कई बच्चों के सिर पर उसी समय ही खुद के और परि बचपन   वार के पेट की आग को बुझाने का बोझ आ जाता है जो उम्र उस स्वर्णिम काल को बिना किसी चिंता, और तनाव के जी भर के जीने की होती है, जिसे पाने के लिए देवता भी तरसते है, इस अवस्था में जब कोई छोटू हाथों में कलम के बजाय रिंच, हथौड़े और खिलौने के बजाय भीख का कटोरा लिए दिखाता है, तो लगता है कि क्या सचमुच दुनिया इतनी गरीब हो गयी है या कलम और खिलौनो की कीमतें हथियारों से अधिक हो गई है |   इस माह मैंने दो ऐसी घटनाएँ देखी जि सके कारण मैं यह सोचने पर विवश हुआ, पहली इस बार  कुछ दिन पहले जब मै घर से नोयडा आने के लिए रेल यात्रा कर रहा था, एक 10-11 साल उम्र की एक लड़की ट्रेन में करतब दिखा कर पैसे माग रही थी, पूछने पर उसने अपना नाम शकीला बताया, जब मैंने उससे पूछा कि तुम स्कूल क्यों नहीं जाती हो, तो उसने कहा स्कूल जाउंगी तो पेट कैसे भरेगा, छोटा भाई, माँ और बीमार बाप भूखे सोयेंगे, यह घटना इस तरफ इशारा करती है की सिर्फ स्कूलों में कपडे,

मकरसंक्रांति : अनेकता में एकता का जश्न

चित्र
बचपन के वो दिन याद आते हैं जब मकरसंक्रांति के महीनों पहले से ही गांव में तैयारी आरंभ हो जाती थी | हर घर में लाई बनाने के लिए धान का उबालना और सुखाना शुरु हो जाता था, गांव के भड़भूजों के यहां भीड़ बढ़ने लगती थी |  इस गरीब तबके को भी इस त्योहार का  काफी बेसब्री  से इंतजार रहता था, होता भी क्यों न, आखिर यह त्योहार उसके लिए एक अच्छा आमदनी का जरिया जो होता था | गांव की फिजा में घुल रही गुड़ की महक के बीच तिल भी अपनी खुशबू बिखेर रहा होता था, लोग गुड़ में तिल मिलाकर तिलकुट बनाना  आरंभ कर देते थे | मकरसंक्रांति का त्योहार भारतीय सभ्यता और संस्कृति से इस कदर जुड़ाव रखता है कि इसके बिना कल्पना करना संभव नहीं, इसका संबंध मौसम परिवर्तन, कृषि तथा प्रकृति जैसे जीवन के आधारभूत तत्वों से है तो  नैतिकता से भी उतना ही घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है यह | इसके माध्यम से अन्न के प्रति आदर प्रकट किया जाता है  ।  यह त्यौहार हिन्दू धर्म के सर्वे भवन्तु सुखिन:  विचार का पूरी तरह से अनुसरण करता है, क्योकि इसमें यह प्रावधान किया गया है की धरती के सभी प्राणियों के लिए दान स्वरुप अन्न निकला जाय । कठोपनिषद में भी क

फूलों का जनाज़ा निकलते देखा |

चित्र
अब तक मैंने फूलों को जनाज़े पर था चढ़ते था देखा, कल मैनें फूलों का जनाज़ा निकलते देखा | एक बार फिर से धर्म के नाम से इंसानियत का  दम घुटते देखा, कल मैनें इस जहां को रोशन करने वाले चराग़ो को बुझते देखा | किसी की उम्मीद, लाठी, और किसी घर के चिराग को बिखरते, टूटते औ बुझाते देखा, सूने आँगन, सूनी गलियां सबकुछ रोते  बिलखते देखा | कल मैंने फूलों का जनाज़ा निकलते देखा .... कल तक जिस दीनी तालीमों के किताबों की दी जाती थी दुहाई, उसे खून के छीटों से सनते देखा,  एक बार फिर से गोलियों  की गूँज में बचपन की मासूमियत को गुम होते देखा | कल तक जिन फिजाओं में घुलती थी महक, खिलखिलाहट, उमंग, उल्लास की, उस पर सिसकियों सन्नाटों की गंध को तारी होते देखा | कल मैंने फूलों का जनाज़ा निकलते देखा .... कल तक माओं को  बस्ते टिफिन था भरते देखा, आज उन हाथों को जनाज़ा सजाते देखा, | कल तक जिन आँखों में थी उम्मीद और आशाएं, उनमें आंसू और नैराश्य के बादल को छाते देखा | कल हमनें फूलों का जनाज़ा निकलते देखा ...... #यायावर_प्रवीण (मेरे द्वारा उन तमाम बच्चों को श्रद्धांजली देनें का एक छोटा सा प्रयास है

कहां खो गया मेरा गांव

कहां खो गया मेरा गांव कोई तो बता दे, गुड़ की महक, चिड़ियों की चहक किसने चुराया कोई तो बता दे, गन्ने की मिठास, इमली की खटास किसने छीना कोई तो बता दे । अब मेरे गाव की गलियों से गुम  हो चुकी बैलों की पदचाप है, अखाड़ों से शांत हो चुकी ढोलक की थाप है, ऐसा क्यों हुआ मेरे गांव   का ह्रास है, कोई  दे । गाँव में ठंडी पड़ चुकी गुलऊर की आग है, सब में बढ़ गयी लालच की प्यास है, आपसी रिश्तों पर जम चुकी द्वेश की राख है, ये कैसा विकास हाय ये कैसा विकास है।     मुझे कोई तो बता दे ।

पुराने भूमि अधिग्रहण कानून पर वापसी

चित्र
देश में धर्म परिवर्तन और घर वापसी जैसे जुमलों के शोर के बीच मोदी सरकार ने एक और बिल को अध्यादेश के माध्यम से चुपके से पारित करा लिया   मोदी सरकार ने विगत 6 महीनों में सात बिल अध्यादेश के सहारे पारित करा चुकी है, जबकि पिछले वर्ष यू पीए सरकार के दौरान भाजपा नेता अरुण जेटली नें अध्यादेश को विधायी शक्तियों का हनन कहा था, लेकिन जब वे खुद सत्ता में आये तो अब अध्यादेश को  देश के विकास के लिए आवश्यक बता रहे है,                          और तो और  भूमि अधिग्रहण क़ानून 2013  को पिछली सरकार के कार्यकाल में  पारित कराने के  हुई बहस में भाजपा नेता सुषमा स्वराज और अरूम जेटली दोनों सम्मलित थे और इनके द्वारा   दिए गए सुझावों को शाामिल भी किया गया था, लेकिन सत्ता में आते ही उसी कानून को परिवर्तित कर दिया।                     मोदी सरकार ने पुराने भूमि अधिग्रहण को बदलते हुए नए कानून में चार एसी श्रेणियां बनाई हैं जिसमें अधिग्रहण के लिए न तो किसी पूर्व निर्धारित अधिग्रहण की आवश्यकता होगी और ना ही किसी प्रकार के सामाजिक प्रभाव का आकलन किया जाएगा, इसके अंतर्गत औद्योगिक कारिडोर तथा रक्षा उत्पाद

सपनों की दुनिया ( The World of dreams)

चित्र
    ये सपनो की दुनिया भी अजब  दुनिया है , पल में बसती , पल में उजड़ती ये दुनिया है,  कुछ बंद ,  कुछ खुली आँखों में सपने आते हैं ,  खुली आखों वाले  पर इक यकीन हो ही जाता है ,  वे इतने लाजबाब आते है , कुछ सपनें गहरी नींद में सुला देते है , कुछ दिल का चैन , रातो की नींद उड़ा  देते है , सपनें हर कोई देखता है,  उसे पूरा होने  की तमन्ना लिए फिरता है सपनों की भी अलग -अलग श्रेणियां  है , गरीबों का सपना, अमीरों का सपना, आशिकों का सपना , हर किसी का अपना  - अपना सपना , सबके पैरों में सपनों की बेड़ियां हैं ।  कोई  देखता है सुबह जाते निवाले का सपना ,  कोई देखता एक और एंटिला का सपना ,  एक ऐसा भी है वह न देखता है निवाले का सपना, न देखता  किसी एंटिला का सपना ,  वह तो देखता बस किसी की बाँहों में सकून से मरने का सपना ,  ये सपने कितनो को हसाते, रुलाते पागल बनाते हैं ,  हर किसी को अपने पीछे भगाते हैं ,  इन सपनों का पीछा करते हुए लोग अपनो से कितनी दूर चले जाते हैं ,  कुछ जहाज के पंछी की तरह लौट आते हैं ,  कुछ ऐसे भी होते हैं जो जाने कहाँ सपनों की दुनियां में सपन