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मार्च, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जिंदगी की राहों पर

 बस चला जा रहा था जिंदगी की राहों पर अचनक ही एक ठोकर लगी मैं लड़खड़ा गया तंद्रा टूटी तो पता चला किसी से टकरा गया, दिलो दिमाग पर वो चेहरा हमेशा के लिए छा गया, फिर तो यूं लगा जैसे जिंदगी का सफर ठहर गया अब तो लगता है जैसे हमेशा के लिए रूठ सहर है गया उसे जाते हुए दूर तलक देखता रहा, खड़े-खड़े घंटों सोचता रहा, शायद फिर किसी मोड़ पर मुलाकात होगी, फिर बची हुई बात चीत होगी, पर पहली मुलाकात की कुछ और बात थी, अगली मुलाकात की कुछ और बात होगी, पर उम्मीद कायम है, जिंदगी की राहों में उनसे एक न एक दिन मुलाकात होगी

स्त्री : स्वयं को पहचान

हाय रे स्त्री ! तेरा  कोई वजूद भी है ? तू मां है, बेटी है, पत्नी, बहन सब है, आंखों में पानी दिलों में सब्र है, पर मुझे बता तू इंसान कब है | स्वर्णिम बचपन बीता तेरा बेटी बन कर , उन्मुक्त गगन में उड़ने का पल बीता पत्नी और मां बन कर | इतनी सारी जिम्मेदारियों के बोझ से तेरी कमर झुक गई, परिवार को उबारते-उबारते जानें कहां खुद ही खो गई, अलग-अलग भूमिकायें निभाते हुए खुद के स्व को भूल गई | तू करूणा की सागर है, प्रचंड अग्नि की ज्वाला है, तू वह मीरा है जो पीती दुख का हाला है, फिर खुद को क्यों तुच्छ समझती है | अभी भी वक्त है जाग जा रे पगली, छा रही क्षितिज पर तेरे विहान की लाली | 21वीं सदी का सूरज तेरी बाट जोह रहा है, आ संभाल नई भूमिका, विश्व तेरा इंतजार कर रहा है | यह पुरुषों की भीड़ आसानी से नहीं आने देगी आगे, मार एक जोर का धक्का निकल जा सबसे आगे | हे स्त्री एक बार तू स्वयं को पहचान ले, फिर हर वह मंजिल तेरे कदमों में जिसे तू फतह करने की ठान ले |

बलात्कार : एक सोच

बलात्कार न तो छोटे कपडों के कारण होता है और न ही सीने पर टी शर्ट या टाप के दरारों से झांकते स्तनों के कारण और हां अकेले घूमने के कारण भी नहीं होता, अगर यह सब कारण होता तो उन दुधमुही बच्चि़यों के साथ रेप न होता, उसके न तो स्तन होता है और न ही वह कामुक दिखती है | रेप एक मानसिक विकृति है, एक दमित मानसिकता है | इस सोच का बीजारोपड़ तभी हो जाता है जब बालक स्त्री और पुरुष फर्क जानना शुरु करता है | घरों मे बालक की पुरुषवादी सोच को खाद पानी दिया जाता है, फिर जब एक बार दमनकारी सोच का पेड़ बन जाता है तो उसे दमन करने और अपना पौरुष दिखाने के लिए स्त्री चाहिए | हमारे आस पास ही ऐसे लोग मिल जायेंगे जो रोड़ पर चलते हुए, बस की भीड़ आदि में हाथों के स्तनों मांसल पिंडों पर छू भर जाने और थोड़े से अंत: वस्त्रों या झांकते शरीर के किसी हिस्से के दिख भर जाने से मुदित हो जाते हैं मानो क्या दिख गया | अरे भाई शरीर और वस्त्र ही है आपका भी तो दिखता है | कुछ तो नोच खाने वाली मानसिकता का प्रदर्शन कुछ इस तरह करते हैं - यार वो जो जा रही ना एक बार मिल जाये ना ******पता नहीं क्या कर दूं, इस तरह से जहर बुझी नजरों वाले ह

नोयडा : एक आत्मा विहीन शहर

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जब मैं पहली बार नोयडा आ रहा था तो मन में अजब तरीके का उत्साह था इस नये शहर से मुलाकात करने के लिए | बार-बार दिमाग में एक खास छवि बन रही थी | शायद वह बन रही छवि मेरे द्वारा देखे गये वाराणसी और इलाहाबाद से बेहतर की कल्पना थी | वाराणसी और इलाहाबाद दोनों संस्कृति संपन्न शहर हैं लेकिन भली-भांति ढ़ाचागत विकास न होने तथा बहुत पुराने होने के कारण काफी हद तक अनियोजित हैं इसीलिए लोग इन्हें पिछड़ा शहर कहते हैं | एक बार तो मेरी दिमागी कल्पना यथार्थ में बदलते हुए दिखी |चौड़ी, चमचाती सड़कें, ऊंची-ऊंची अट्टालिकाऐं आदि वह सब कुछ दिखा जो कि वर्तमान में किसी भी शहर को स्मार्ट प्रमाणित करने के लिए योग्यता मानी दजाती है | और तो और अब तक जहां मैनें  इलाहाबाद में तीन सालों में तीन  से चार बार मुश्किल से सड़कों की लिपाई पुताई होते देखा था वहीं नोयडा में यह रोज दिखता है | लेकिन मैनें यहां मुश्किल से छ:माह ही गुजारा होगा कि इस शहर की स्मार्टनेस से मेरा परिचय होना शुरू हो गया |  धीरे-धीरे यह भी पता चला कि यह  शहर आत्मा यानी संस्कृति विहीन है | नोयडा एक ऐसा शहर जिसकी अपनी न तो कोई सांस्कृतिक विरासत है और न