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शीर्षक मुक्त कविता (2)

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सिन्दूर बन सिर पर          सवार होना  बन्धनों में जकड़ना                   चूड़ियां पहना       हाथों की  लय पर लगाम लगाना              नहीं चाहता मैं | पांव की बेड़ियाँ बन                तुम्हारी उड़ान रोकना गर्दन मंगल सूत्र के               बोझ से दबाना परिवार के खूंटे से बांधना और तुम्हारी         तमन्नाओं को वचनों के बर्फ से भी                 ठंड करना  नहीं चाहता मैं | बस आँखों से बोकर               एक विश्वास चुपचाप दाखिल              हो जाना चाहता हूं तुम्हारी दुनिया में            जैसे नीद और स्वप्न दाखिल हो जाता है                    आँखों में,                                    तुम्हें बंधन मुक्त रख              तुमसे प्यार करना चाहता हूं बस |

बिना शीर्षक की कविता (1)

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आजादी को लेकर कविता के रूप में मैंने अपनी कुछ भावनाएं व्यक्त की हैं | तो सोचा कि यदि आजादी की कविता है तो शीर्षक में क्यों बांधें... मै, देखना चाहता हूँ                     उड़ते  परिंदों की तरह                                 उन्मुक्त आकाश में तुम्हें मुक्त हो तुम,             सब बन्धनों से जहां कर सको आजाद ख्याली से सारे काम                                                                                          जिसे यह लम्पट समाज                                                 परम्परा का चोंगा पहनाकर                                                                     हर पल रोकता है | लगा देना चाहता हूं ताला,                       हर उस जुबान पर                                   जो कदम-कदम तुम्हें रोकती है | मै  देखना चाहता हूं,                 तुम्हें ऐसा जहां बसाते हुए                                  जैसा तुम गढ़ना चाहती हो                                           बिना सदमे के,  बे-झिझक, खिलखिलाते हुए |                     

चाय की केतली

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दो पहर का वक्त,  दिल्ली की गर्मी अपने शबाब पर है |सितंबर का महीना होने के बावजूद बारिस की बूंदें कहीं रूठ सी गई हैं | बादल देखने पर किसी ऐसे रूई के फाहे की तरह लग रहे थे, जैसे वह किसी घायल मजलूम को बस दिखाने के लिए हों, दरद हरने के लिए नहीं | इस रहस्यमई माहौल में समाचार एजेंसी यूएनआई के गेट के बगल में अधनंगा व्यक्ति चाय और कचौड़ी की दुकान लगाए बैठा था | वह लोगों को चाय समोसे देने के बीच शंका भरे मन से रोड़ के दोनो तरफ नजरें दौड़ाता और फिर अपना काम करने लगता | सामने नीति आयोग है, जिसमें उसके स्टोव पर खदबदाती चाय से भी गर्म बहसें हो रही होंगी | लेकिन उसे नही पता कि यह नीति आयोग किस चिड़िया का नाम है और यह भी नहीं पता कि यह सड़क देश के सबसे बड़े सदन तक जाती है | उसे पता भी होगा तब भी बन रही नई नीतियों से क्या मतलब | आखिर नीतियां उसके लिए तो बनती नहीं | बनती तो उसके जैसे लोग अपना घर बार छोड़ दिल्ली की झुग्गियों में रहने को विवस न  होते | रोज बड़े बड़े पत्रकार उसकी चाय की दुकान पर आते हैं | चाय के साथ सरकार की नीतियों पर बहस करते हैं | वह बस सुनता जाता है | उसे चिन्ता तो अपने उस र

थोड़ी और देर

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इतनी उदासी रहती है  आजकल कि सुबह भी   मुरझाई हुई लगती है इतना सन्नाटा है  चारो तरफ जैसे अंतर्मन  की वीणा टूटी हुई लगती है छेड़ने पर तारों से बस  आह सी निकलती है अब तो शाम भी  मायूस सी लगती है किसी अंजान के  जाने के गम में  सिसकते हुए  लगती है क्यों नहीं रोक लेता  कोई रात थोड़ी और देर मुस्कराती सुबह की  उम्मीदें बनी रह जाती  थोड़ी और देर न छेड़ता टूटी वीणा को कोई  थोड़ी और देर थोड़ी और देर हो जाती  शाम होने में गम से दूर रह जाती  थोड़ी और देर कुछ कलियां फूल बन बिखरने से बच जाती  थोड़ी और देर आंसू और ओस का  एकाकार  बना रहता                                        थोड़ी और देर

जयपुर की वह सुबह

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जयपुर  की वह सुबह कभी नहीं  भूल सकती, भोर में तीन बजे पहुँचते ही सुनील कैमरे के साथ हमें ले उड़ा जयपुर की सैर करने । कैमरा हाथ में आया तो कई पुरानी यादें ताजा हो आईं । मैंने भी अरावली के गोद  में बैठे  इस परिंदे को कैद कर लिया ।  सुबह के धुंध के चादर में लिपटी  अरावली घाटी में बैठा यह परिंदा एक अजब सी शान्ति का अहसास करा रहा था ।  इस  गौरैया के  धुंध के बीच अकेले बैठने से इसके संकट में होने का अहसास हो रहा था । 

कृष्ण तुम भगवान नहीं

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आज दिमाग में कृष्ण को लेकर कुछ ख़याल आ रहे थे, हर बार की तरह बार बार यही लग रहा था की कृष्ण कैसे भगवान हो सकते हैं ?  क्या उन्होंने गीता में अपने मुख से खुद को ही भगवान बताया  इसी लिये |   यह तो अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनने वाली बात हुई | इन्ही उलझे ख्यालों में जो कुछ दिमागी हलचल हुई वही लिखने की कोशिस है |  अरे कृष्ण कहाँ गए तुम, इस बार भी तुम्हारा जन्मदिन देश में बड़ी धूम धाम से मनाया गया, लेकिन  उसी समय देश के अलग अलग हिस्सों में कई द्रोपदियों का चीर हरण हो रहा था | लेकिन उन्हें कोई कृष्ण बचाने वाला नहीं मिला | उनकी चीखें तुम्हारे जन्मोत्सव के शोर में दब कर रह गईं | कितनों ने तुम्हारे मदद की आस में गला फाड़ के चीखा होगा, कितनों ने आँखें बंद कर के बुदबुदाया होगा, शायद अब कोई कृष्ण आ जाए | पर कोई नहीं आया |  क्या कभी हजारों साल पहले किसी एक द्रोपदी की इज्जत बचाने से तुम इतने बड़े हो गये की आने वाली पीढियां बिना किसी सवाल के तुम्हे पूजती रहेंगी ? अगर यही मान लिया जाये तो कुछ दिन पहले मेरठ में एक व्यक्ति ने भी किसी अंजन द्रोपदी की लाज बचाने की खातिर जान दे दिया था | तो हम उसकी प