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नहीं स्वीकार ऐसा लोकतंत्र

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जहां भूख से  मरते बच्चे,  कर्ज के बोझ से  दबे किसान, शिक्षा का हक़ मांगते  युवाओं का  सड़कों पर उतरना  खतरा बन जाए,  बिना जमीर जिंदा होना  एक शर्त बन जाए, जहां सवाल पूछना देशद्रोह कहा जाए, हक मांगना विकास का  रोड़ा बन जाए  मैं थूकता हूं  ऐसे लोकतंत्र पर।  जहां संविधान और  विज्ञान नहीं,  धर्म रटने पर  पुरस्कार दिया जाए,  सिर कटाना ही  देशभक्ति बन जाए, मैं थूकता हूं  ऐसे लोकतंत्र पर।  अरे.. मैने तो संविधान को  गीता कुरान से भी पवित्र माना था, लोकतंत्र को अपना तंत्र माना था, जिसमें सब  अपनी बात को बा-आवाज-ए-बुलंद  रख सकें, इसे आसमान  से भी विशाल  अर्थों वाला माना था,  वसुधैव कुटुंबकम का पहला  चरण माना था ।  यह तो सत्ता के दलालों के हाथ फंस कर रह गया  कार्पोरेटों के हाथ  खेलने लग गया, हमने इसे घर  जैसा माना था,  जहां एक का दुख सबका दुख होता है, लेकिन यह क्या !  जिसे हमने चुनकर  संसद भेजा,  वह कुर्सी पाते ही  बेगाना निकला , लोकतंत्र तो  उल्लू बनाने का  कारखाना निकला, गर ऐसा ही होता है  लोकतंत्र  तो थूकता हूं इस पर ।  गर हड़ताल को

न होता यह राष्ट्रवाद

डार्विन  अच्छा किया  तुमने,  बता दिया कि  हम बंदर थे ।  अब कह सकूंगा खुदा से इंसानों को फिर से  बंदर कर दे।  ना देना दोबारा ऐसा दिमाग,  इसकी बुद्घि को भी  बंजर कर दे, ताकि ना पनप सके  फिर राष्ट्रवाद ।  इस कमजर्फ नें  धरती को  लाल कर दिया, सिर्फ दो सौ सालों में  लाशों से पाट दिया, देखते ही देखते  इसनें दुनिया को  कंटीली बाड़ों में बांट दिया ।  जब से यह प्रेत आया  धरती नें हिटलर देखे,  मौत के गैस चेंबर देखे,  दो दो महा युद्ध देखे, नागासाकी- हिरोशिमा को  पिघलते देखे, इंसानों को  भाप बनते देखे,  वियतनाम देखे,  इराक देखे, फिलस्तीन में  मासूमों के चीथड़े देखे।   न होता यह राष्ट्रवाद,  न बंटती यह धरती, न गरजती बंदूके  न जमता कोई  सियाचीन में  न जलता कोई  सहारा की रेत में।  कर सकता हर कोई  यात्राएं  धरती के  इस छोर से  उस छोर तक, बची रह जाती  थोड़ी इंसानियत  प्यास खून की नहीं  पानी की होती, न होता यह राष्ट्रवाद तो  हम भी पंछी जैसे होते

कौन बदले ? जेएनयू या सरकार

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तस्वीर साभार: इंडियन एक्सप्रेस एक आम नजरिए से देखा जाए तो जेएनयू या किसी भी संस्था में देश विरोधी, और सजा पाए आतंकी के समर्थन मेें नारे लगाना गलत हो सकता है। क्योंकि हर कोई यही दलील पेश करेगा कि जिस देश में रहते हो उस देश के खिलाफ कैसे बोल सकते हो । पर जब हम इसे एक प्रबुद्ध नागरिक और नजरिए का विस्तार करके देखने की कोशिश करते हैं तो यह गलत और अटपटा तो लग सकता है पर देशद्रोह तो कतई नहीं हो सकता।   सबसे पहले कथित तौर पर जेएनयू में अफजल गुरु के लिए लिए लगाए नारों को ही ले लेते हैं। आपको पता होगा कि संसद भवन पर हमले के आरोप में कुल तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया था। जिनमें से दो को अदालत ने रिहा कर दिया था और अफजल गुरु को फांसी की सजा दी सुनाई गई थी।   फांसी गलत थी या सही इसपर मेरे मानने या न मानने से कोई खास फर्क नहीं पडऩे वाला, पर हां कानूनविदों और के मानने से जरूर पड़ता है। कई  विधि विशेषज्ञों ने फांसी के समय इसे गलत ठहराया था। उन्होनें इसमें कई न्यायिक खामियां गिनाई थी। काटजू ने तो खुलेआम कहा था कि यहां न्यायिक गलती हुई है। और तो और फैसला सुनाते वक्त जूरी ने यह भी कहा थ