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उठ मेरी जान

उठ मेरी जान, उठ  अभी दूर तक चलना है तुझे  वहां तक जहां जमीं औ आसमां हैं दिख रहे गले लगते हुए  रास्ते हैं पथरीले और कंटीले  पर इसी पे चलना है तुझे  रास्ते की कठिनाईयों में  इतना दम कहां जो तेरे हौसलों को तोड़ सकें  नहीं कोई बेड़ियां मजबूत इतनी  जो कदमों को तेरे थाम सकें बस एक बार उठ जा मेरी जान  थकान, हताशा, हार को  निकाल फेंक दे शब्दकोष से गर जितना मिला उसे ही  बस कह दिया तो जहां से निकल कर आए हो वहीं पहुंचा दिए जाओगे फिर से अतीत तेरा शोषण और दमन से भरा हुआ है  कुछ पन्ने पलट देख इतिहास के तू समर्थ है नया आदर्श गढऩे में  ना सीखना रामायण पुराणों से  वरना मुक्त न हो सकोगे  अग्नि परीक्षा चीरहरण से  तेरी मंजिल करीब है  बस एक बार हासिल कर ले उसे फिर तेरा जहां होगा, तेरी कहानियां  उठ मेरी जान एक बार फिर से  वह सामने इंतजार कर रही हैं  तेरा नई सुबह की रश्मियां

तुम्हें क्या क्या लिखें

जिंदगी का राग लिखें,  रंग लिखें  पतझड़-बसंत लिखें  या मन की तरंग लिखें हर रोज सोचते हैं  तुम्हें क्या क्या लिखें जमीं का माहताब लिखें  अपनी आंखों का आब लिखें या कोई ख्वाब लिखें  सोचते हैं क्या क्या लिखें  तेरे कदमों की आहट लिखें  मुस्कराता देख मिलती राहत लिखें  या अपनी आखिरी चाहत लिखें सोचते हैं तुम्हें क्या क्या लिखें  होठों का गुलाब लिखें खूबसूरती का शबाब लिखें  या बस लफ्ज 'लाजबाब' लिखें  सोचते हैं अब और क्या लिखें  क्यों ना तुम पर  कोई किताब लिखें  दिल की हर बात लिखें  बस लिखते रहें  दिन-रात लिखें  पर सवाल वही क्या-क्या लिखें  कहां से शुरू कहां  अंत करें

महानगर

वहां के लोग रहस्यमय थे सबके चेहरों पर मुखौटे परत दर दर परत चेहरे ऊपर से शांत पर सबके भीतर  कुछ   जल रहा था  हर कोई बस  चल रहा था वहां के कुत्तों तक को समझना मुश्किल था लोगों की गंभीरता को देखते हुए कहा जा सकता था कि  हर कोई विचारक है कोई प्लेटो कोई रूसो  कोई अरस्तू है पर  सबके सब पुस्तकों के बाजार में उल्लू खोजते थे काफी खोजबीन करने पर पता चला यह जगह कोई महानगर है आगे राजधानी बनने की संभावना पूरी थी यहां के लोगों की ना उम्मीदी के बीच बड़ी उम्मीद थी सड़कों पर लोगों की भीड़ थी फिर भी वे वीरान थी इस भीड में अधिकतर चेहरे मुरझाए हुए गुलाब थे जबकि वे सुखी होने के सभी वर्तमान पैमाने  पूरे करते थे जल्द ही पता चला वहां लोग जिंदा नहीं थे बस इसका नाटक कर रहे थे एक दूसरे को कुचल आगे बढ़ने में सुख चैन तलाश रहे थे संवेदनाएं किनारे पड़ी कराह रही थीं रह रह कर अभी भी अपने होने का अहसास करा रही थीं मुझे यह सब देख महानगर से डर लगने लगा पता नहीं यह मेरा भ्रम था  या हकीकत .

घरेलू महिला कामगारों की अनसुनी चीखें

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महिलाएं आत्मनिभर्र बनने के लिए बड़ी संख्या में घरों से दूर शहरों में काम खोज रही हैं। कुछ पढ़ी-लिखी महिलाएं मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करती हैं तो अनपढ़ महिलाएं शहरी घरों मेें। काम दोनों करती हैं, पर एक को महिला सशक्तीकरण का चेहरा माना जाता है और दूसरे पर किसी का ध्यान नहीं जाता। यह सुबह से शाम तक अलग-अलग घरों में बर्तन धुलती हैं, खाना बनाती हैं, कहने को भले ही यह कामगार हैं पर इन्हें सिर्फ नौकरानी समझा जाता है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग 9 करोड़ से अधिक घरेलू कामगार महिलाएं हैं। इनके साथ तरह-तरह की क्रूरता, अत्याचार, और शोषण होता है पर कोई संगठन न होने की वजह से इनकी आवाज दब कर रह जाती है। आए दिन ऐसे मामले अखबारों की सुर्खियां बनते हैं, पर कभी उन पर समाज में व्यापक बहस नहीं होती है। व्यापक बहस तो छोडि़ए लोगों के लिए ऐसे मामले चर्चा का विषय भी नहीं बनते सामान्य रूप से, जबतक कि कोई बड़ी वारदात न हो। ज्यादातर महिला कामगारों की चीखें कोठियों की चारदीवारी में घुटकर रह जाती है। रोज-रोटी छिनने के डर से वे अपने साथ हो रहे जुल्म की शिकायत भी नहीं कर पाती हैं। घरेलू कामगार

फूल तो खिलते रहेंगे...

माना कि तुम्हारे पास सत्ता है, ताकत है फूलों को कुचल दोगे पर आने वाली बहारों का क्या करोगे ? जो एक बार में सैकड़ों फूल खिला देती हैं, थक जाएंगे तुम्हारे हाथ एक दिन तोड़ते तोड़ते, पड़ जाएंगे पांवों में छाले कुचलते कुचलते तो क्या करोगे ? फूलों का तो काम है खिलना बहारों में, बहारों का काम है आना वे आती रहेंगी, माना कि तुम्हारे हाथों में शमशीर है, काट दोगे पौधों को खोद दोगे जड़ों को, पर क्या करोगे उन बीजों को जिन्हें धरती ने गोद में छिपा लिए होंगे वे जब हवा पानी पाएंगे, पनप उठेंगे जितना भी जुल्म ढ़ाओगे वे दमक उठेंगे हम घास हैं हर बार तुम्हारे किए पर उग आएंगे तो क्या करोगे ?

ओ रे...

तुम चांद हो जिसकी रोशनी ठहरे पानी में छिटक रही है मैं उसमें तैरते पंछी के जैसा जो पानीं में चांद का बिंब देख बड़े हौले से बढ़ रहा पर नियति में नहीं है छू पाना पता है फिर भी जीने का यह भी हो सकता है बहाना हो सकता है किसी दिन भटक जाऊं पर भूलना बेवफाई कहां होती है जाने जानां

हत्या

सुबह का अखबार  रंगा है हत्याओं से  घर में हत्या बाहर हत्या सडक़ पर हत्या स्कूल में हत्या बस हर तरफ  हत्या ही हत्या  इन हत्याओं के  कितने ठंग हैं  कहीं बंदूक से हत्या  कहीं भूख से हत्या  जाति, धर्म से हत्या  बुंदेलखंड से  विदर्भ तक  श्रीलंका से  सीरिया तक  हत्याओं का अंतहीन सिलसिला है 21वीं सदी की  हर सुबह पर  खून  के धब्बे हैं  अखबार पलटने पर  मन में एक ही  सवाल  आता है  अगले 100 साल बाद  अखबार पर क्या होगा ? खून का धब्बा  या  कबूतर ?

जिंदगी और रेगिस्तान

रेत का एक समंदर है मुझमें जिसमें कहीं कहीं छिटके नखलिस्तान हैं उसमें उगे हैं कुछ प्रेम के पौधे उन्हें हरा भरा रखने को  पानी चाहिए वर्षों से भटक रहा हूं न पानी मिला न बरसात आई एक दिन नखलिस्तान को रेगिस्तान निगल लेगा और मुझे उसमें चलने वाली आंधियां