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दो प्रेम कविताएं ...

1 नहीं कहता तुम्हें मैं गुलाब कली भोर का तारा या सांझ की लालिमा तो कारण नहीं कि दिल सूना है या मेरा प्यार है धुंधला बस केवल यही है :सारे उपमान पड़ चुके हैं धुंधले जैसे कपड़े घिस-घिस कर छोड़ देते हैं रंग मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगे अगर कहूं तुम्हें, कास के फूल जैसा या शरद की सुबह में लहराती छरहरी बजरे की बाली सभ्यता के इस दौर में जुही के फूल को भले ही समझा जाता हो, सौंदर्य का पैमाना पर इससे अधिक सच्चे- प्यारे प्रतीक हैं कास के फूल या शरद की सूनी सांझ में डोलती बजरे बाली (कुछ अधूरी लाइनें) 2 तुम्हें याद है, जब हम मिले थे आखिरी बार तुम पलट कर मुस्कराए थे और मैनें बड़ी सफाई से गीली आंखें छिपा ली थी उसके ठीक पहले हंसे थे हम दोनों आखिरी बार एक साथ वह हंसी उठी थी नाभि के हिस्से से और निकल गूंज गई हमारे साथ हंसी थी सड़कें और फुटपाथ भी पर वे हंस रहे थे हमारी नियति पर उन्हें भी पता था कि इन बावरों की हंसी बस आज भर है तुम्हें याद है या भूल गए भूल गए हो तो अच्छा ही है जरूरी नहीं दोनों उस हंसीन मौसम के इंतजार में कर दें उम्र तमाम तुम हंसो मै

पेंसिल, कलम, गुलाब वाले बच्चे

'क' से कलम नहीं जानता वह  'प' से पेंसिल मायने नहीं समझता शायद गुलाब जैसा वह खुद रहा होगा कभी शायद जन्म लेने के वक्त  या कुछ महीनों बाद तक  पर अब सूखकर कांटे जैसा हो गया है उसने स्कूल भी नहीं देखा कभी लेकिन पढ़ रहा है भूख का अर्थशास्त्र कल देखा उसे पेंसिल और गुलाब बेंचते हुए पिचके पेट, पड़पड़ाए होठ, सूखी शक्ल लिए एक-एक रुपए खातिर गिड़गिड़ाते हुए कोई पहली दफ़ा नहीं हर रोज देखा जाता है वह मेट्रो के नीचे, चौराहों पर कभी पेन कभी गुलाब लिए हाथों को लोगों से रिरियाते झिड़की खाते हुए मुझे डर लगता है पेंसिल, कलम, गुलाब वाले उन बच्चों से उनकी पेंसिल की नुकीली नोक आत्मा को बींधती है गुलाब के कांटे निकल चुभ जाते हैं पोर पोर में उनसे बचने का कोई रास्ता नज़र नहीं आता वे दिखने लगे हैं नीद में भी सुबकते हुए मैं रोज़ मनाता हूं ये खुदा ! सामना न हो इन पेंसिल कलम गुलाब वाले बच्चों से पर न तो खुद सुनता है और न बच्चे 

खाली प्लेट जैसा

हर नया दिन होता है खाली प्लेट जैसा जिसमें दिखता है उदास, धुंधला खुद का अक्स   परोसता हूं उसपर दाल भात   दाल में कभी नमक ज्यादा कभी हल्दी दोनो को साधने की कोशिश रोज होती है, हो रही है जैसे मेड़ पर चलाना साइकिल   कर देता हूं एक एक चावल बीन, जीभ से चाट प्लेट  पहले से अधिक चमाचम लेकिन यह चमक तब तक है, जब तक उसमें, दाल-भात की नमी बनाता हूं अंगुलियों से मन के खुरापातों की तस्वीर प्लेट पर, रोज की तरह तब तक फिसल कर, हाथ से गिर गई प्लेट छन्न की आवाज करके, जैसे दिन बीत जाता है धीरे से बाद फिर मचती है हाय-तौबा