पेंसिल, कलम, गुलाब वाले बच्चे

'क' से कलम नहीं जानता वह 

'प' से पेंसिल मायने

नहीं समझता शायद

गुलाब जैसा वह खुद रहा होगा कभी

शायद जन्म लेने के वक्त 

या कुछ महीनों बाद तक 

पर अब सूखकर कांटे जैसा हो गया है

उसने स्कूल भी नहीं देखा कभी

लेकिन पढ़ रहा है

भूख का अर्थशास्त्र

कल देखा उसे पेंसिल

और गुलाब बेंचते हुए

पिचके पेट, पड़पड़ाए होठ,

सूखी शक्ल लिए

एक-एक रुपए खातिर

गिड़गिड़ाते हुए

कोई पहली दफ़ा नहीं

हर रोज देखा जाता है वह

मेट्रो के नीचे, चौराहों पर

कभी पेन कभी गुलाब

लिए हाथों को

लोगों से रिरियाते

झिड़की खाते हुए

मुझे डर लगता है

पेंसिल, कलम, गुलाब

वाले उन बच्चों से

उनकी पेंसिल की

नुकीली नोक

आत्मा को बींधती है

गुलाब के कांटे निकल

चुभ जाते हैं पोर पोर में

उनसे बचने का

कोई रास्ता नज़र नहीं आता

वे दिखने लगे हैं नीद में भी

सुबकते हुए

मैं रोज़ मनाता हूं

ये खुदा ! सामना न हो

इन पेंसिल कलम गुलाब

वाले बच्चों से

पर न तो खुद सुनता है

और न बच्चे 

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