मैं पिछली जनवरी में जब नई नौकरी के लिए नोएडा से सूरत शिफ्ट हो रहा था,
तो क्लॉसमेट्स और कई साल कहीं रह लेने पर स्वाभाविक से लगाव को “घूमने की
चाहत’ से किनारे किया था। मैने सोचा कि चलो कुछ नई जगह, नई संस्कृति देखने
को मिलेगा, पहली बार समंदर देखा जाएगा। मेरे लिए घूमना मतलब है उसकी
संस्कृति, लोग और उसके इतिहास को समझना। उसे कैमरे में कैप्चर करना।
गुजरात में घूमने वाली जगहों में
दांड़ी
का नाम सबसे ऊपर था। मैं सत्याग्रह की पवित्र जमीन को छूना चाहता था।
हालांकि यह खूबसूरत दिन आया सूरत आने के 8 महीने बाद किसी वीक ऑफ की पूर्व
संध्या पर, जैसा कि अखबार में नौकरी करते हुए हर काम वीक ऑफ के दिन ही
निपटाने की योजना बनाने की अघोषित परंपरा है। मैं कैमरा दोबारा ले चुका था,
इसकी सही शुरुआत दांडी से बेहतर और दूसरी जगह कहां हो सकती थी।
दांडी के लिए सुबह बस स्टैंड से बस पकड़ी। नई जगह, गुजरात में पहली बार
बस की यात्रा और मेरा पहली बार अकेले घूमने का प्लान। मन में काफी उथल-पुथल
मची थी। एक कारण तो गुजराती का कम समझ में आना भी था। सूरत से इसकी दूरी
करीब 60 किलोमीटर है। जिसके लिए दो बार बस बदलनी पड़ती है। पहली नौसारी तक,
जिसकी दूरी 45 किलोमीटर है और दूसरी वहां से करीब 18 किलोमीटर दूर दांडी
तक।
दो घंटे में बस नौसारी पहुंची तो मैं कंडक्टर की बात समझ नहीं पाया और
एक किलोमीटर पहले उतर लिया। बस स्टैंड का कुछ समझ नहीं आया तो पहले गूगल
मैप का सहारा लिया। लेकिन जल्दी ही समझ आ गया कि गूगल का सहारा नहीं, किसी
व्यक्ति से पूछताछ की जानी चाहिए। भूख बहुत जोर की लगी थी, एक पराठे की
रेहड़ी दिखी। पहले तो मेथी के पराठे खाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी लेकिन
दो लिया, काफी टेस्टी थे। दो फिर और खाया और पानी पिया तब थोड़ी जान में जान
आई। इससे भी बड़ी सुकून वाली बात लगी कि सिर्फ 20 रूपए खर्च हुए। खाकर बस
स्टैंड पहुंचा तो मालूम हुआ कि एक- डेढ़ घंटे बाद दांडी के लिए बस मिलेगी।
अब इतनी देर क्या करता, बस अड्डे का मुआयना किया। आसपास के बाजार देखे। आप
गुजरात में बस से यात्रा करते हुए पाएंगे कि स्टैंड अक्सर किसी मॉल की तरह
होगा। नौसारी मॉल जैसा तो नहीं था, लेकिन उसपर एक छोटा ढ़ाबा जरूर चल रहा
था। हालांकि मैं पराठे खा चुका था तो देखकर कोई इच्छा नहीं हुई। बाहर कुछ
महिलाएं बेर, अमरूद, नासपाती और नारियल के अलावा कुछ स्थानीय फल भी बेंच
रही थीं। इसी बीच एक खटारा बस आई, हम सवार हो लिए।
बस में सवारी अधिक नहीं थी, कुछ लड़के थे जो दांडी जा रहे थे, बीच पर
मस्ती करने और कुछ महिलाएं ओर बुजुर्ग। लड़के गांधी को जानते थे, लेकिन ऐसे
बुड्ढे के तौर पर, जिसकी वजह से दांडी बीच काफी डेवलप है, इससे अधिक नहीं।
नौसारी से दांडी के बीच सड़क के दोनों तरफ हरे खेत और आम के पेड़ थे।
किनारे के पेड़ इतने सघन इतने थे कि सड़क घनी छाया थी। बहुत दिन बाद इतनी
गहरी हरियाली देखने को मिली थी। बस के दांडी में मुख्य जगह पहुंचने से पहले
एक रोचक लेकिन थोड़ा आश्चर्यजनक चीज घटित हुई। बस में सवार एक महिला का घर
मुख्य सड़क से करीब दो तीन किलोमीटर अलग हटकर था। बस उसे घर तक छोड़ने गई।
पूछने पर बताया कि वह इतना लंबा पैदल नहीं जा सकती, इसलिए बस हर रोज
छोड़ती है। अब हम पहुंच गए थे नमक तोड़ने, प्रार्थना स्थल और सैफी विला के
परिसर के मुख्य गेट पर। एक चाय- पानी की दुकान चलाने वाले दुकानदार ने
बताया कि शाम को भी बस यहीं से मिलती है, आराम से घूमिए। उसने थोड़ा बहुत
गांधी और नमक सत्याग्रह के बारे में बताया।
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सैफी विला |
मेन गेट से सैफी विला की दूरी एक किलोमीटर से अधिक है। तेज धूप और समंदर
की नम हवा से उपजी चिपचिपाहट भरे मौसम में यह दूरी तय करनी पड़ी। पक्की
सड़क के दोनों तरफ बबूल की घनी झाड़ियां थीं। उस पर गौरैये, कबूतर और
पेंडुकी जैसे पक्षी आराम फरमा रहे थे। पक्षी और भी रहे होंगे लेकिन आंखें
खोज नही पाईं| इसके अलावा थोड़ी-थोड़ी देर में इक्का- दुक्का मोटरसाइकिलें
भी गुजर जा रही थीं।
जहां गांधी जी ने नमक कानून तोड़ा था वह एक परिसर की तरह है। जिसमें एक
ऊंची पटि्टका बनी है, पास में काले रंग से पेंट की हुई गांधी जी की नमक
उठाने की मुद्रा में मूर्ति खड़ी है। आसपास बने पार्क नुमा जगह में लगे
पौधों की छंटाई काफी दिनों से नहीं हुई थी। मैं परिसर में घुसते ही सबसे
पहले इसी जगह पर पहुंचा। इस दौरान कान में एक व्यक्ति की जूते चप्पल
निकालने की हिदायत भरी आवाज पड़ी। ये रमन भाई पटेल थे, जो कि पिछले 15-16
सालों से गांधी की हिफाजत करते हैं। उन्होंने बैठाया, पानी पिलाया, जैसा कि
वो करीब सबके साथ करते हैं उसी अंदाज में।
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मिट्टी की बनी दान पेटी |
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रमन भाई को मैं गांधीवादी तो
नहीं कह सकता लेकिन गांधी के प्रति उनका लगाव साफ तौर पर दिखा। उनसे काफी
लंबी बातचीत हुई। उन्होंने पास में बन रहे हजारों करोड़ के म्यूजियम के
प्रोजेक्ट के कामगारों पर बात की। देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति और सैफी
विला की उपेक्षा जैसे कई सारे मुद्दों पर बात की। व्यवस्था और इस सरकार के
प्रति उनका आक्रोश चरम पर था। मैं उनकी आंखों में गांधी की उपेक्षा का आक्रोश साफ साफ देख सकता था।
उन्हाेंने कहा, कि इस सरकार का बस चले तो गांधी को समंदर में डुबा कर खत्म
कर दे। लकिन वह चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकती। रमन भाई ने बताया कि कई बार घास काटने और देख-रेख पर आने वाले खर्च सरकार से नहीं मिलते तो उन्हें अपनी जेब से देने पड़ते हैं। उन्हें लगा कि मैं अखबार में काम करता हूं तो खबर लग जाएगी। लेकिन मैं जानता था कि मेरे से कुछ नहीं होगा। क्योंकि मेरे वहां जाने से कुछ महीने पहले ही दैनिक भास्कर के चीफ रिपोर्टर रहे केतन भाई (केतन राठौड) ने रिपोर्ट लिखी थी। उस रिपोर्ट का जरा भी असर नहीं हुआ। रमन भाई ने कहा, दांडी देखने के लिए विदेश से
भी लोग आते हैं लेकिन सैफी विला की मरम्मत नहीं हो रही| कई बार दो दो तीन
तीन महीने घास काटने वाले के पैसे तक नहीं मिलते। सैफी विला में दो तीन
बल्ब जलते हैं लेकिन उसका बिल तक सरकार नहीं जमा करती। वे बीच बीच में
गांधी दर्शन को आने वाले पर्यटकों को हिदायत भी देते रहते थे। वे लगातार
बोले जा रहे थे और मैं सुनता रहा। उनके पास शिकायों का पूरा गठ्ठर था।
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जमीन पर रखा स्मृति कलश |
मैनें सैफी विला के बारे में अभी तक नहीं बताया। दरअसल यह एक ऊंचे
चबूतरे पर बनी एक इमारत है। जिसमें गांधी जी आकर रुके थे। अब यह म्युजियम
है, जिसमें गांधी से जुड़ी तस्वीरों का संग्रह है। इसमें चंपारन (बिहार) की
मिट्टी से भरा एक कलश रखा है। चंपारन शताब्दी वर्ष के अवसर पर पर चंपारन
से पांच अप्रैल को दांडी स्मृति कलश लाया गया था। जिसमें चंपारन की मिट्टी
रखी हुई है। इसी तरह का एक स्मृति कलश दांडी से चंपारन भी भेजा गया था।
म्युजियम में लगी ऐतिहासिक तस्वीरों तस्वीरों होकर गुजरते हुए महसूस हुआ कि
गांधी को हम कितना कम जानते हैं। उसनके विचारों के बारे में हम कितना सतही
तौर पर सोच पाते हैं। यदि किसी दिन सैफीविला सच में खत्म हो जाएगा या
गांधी की निशानियों को मिटा दिया जाएगा तो क्या सच में गांधी मिट जाएंगे ?
म्युजियम में घूमते हुए मन में ख्याल आया कि क्यों न साबरमती आश्रम से
दांडी तक एक यात्रा की जाए, जिसमें उन्हीं गांवों से होकर गुजरा जाए जहां
गांधी रुके थे। क्या गांधी के विचारों का कोई प्रभाव अब भी लोगों में बचा
हुआ है? अब कैसे हैं ये गांव। क्यों न निलहे किसानों की जमीन वाले चंपारन
से नमक के खेतों में मजदूरी करने वाले दांडी और कच्छ तक पद यात्राएं की
जाएं।
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रमन भाई |
मैं करीब दो बजे रमन भाई से दोबारा मिलने का वादा करके लेकर दांडी बीच
पर पहुंचा। धूसर रंग का दूर तक पसरा हुआ यह बीच गुजरात के दूसरे बीचों से
साफ है। हालांकि उम्मीद थी कि समंदर के किनारे खूबसूरत सूरत सूर्यास्त
देखने को मिलेगा, लेकिन बादल होने की वजह से ऐसा नहीं हुआ। सूर्यास्त नहीं
दिखा तो समंदर की रेत के कुछ पैटर्न और वहां मस्ती कर रहे लोगों की
तस्वीरें कैप्चर किया।
समंदर के किनारे दांडी बीच पर मस्ती करते हुए बच्चे
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