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लड़की कैक्टस थी : स्मृतियों, स्वप्न और प्रेम और जिजीविषा की कविता

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दी प्ति सिंह (वियोगिनी ठाकुर) की कविताएं और अन्य लिखा हुआ फेसबुक सहित कई प्लेटफॉर्म पर तो पढ़ा जाता रहा है। अब उनकी कविताओं का एक संकलन 'लड़की कैक्टस थी' नाम से आ गया है। इसमें 100 कविताएं हैं। उनकी कविताएं पढ़ते हुए आप उनकी सपाट बयानी से बार-बार अभीभूत हो सकते हैं। वे बेहद सरल और न्यूनतम भाषा लालित्य वाली कविताओं के जरिए अपने आसपास की चीजों को बहुत सूक्ष्म नजर से देखती हैं। उनकी कविताएं प्रेम पर हैं। लेकिन ये प्रेम सिर्फ प्रेमी और प्रेमिका का नहीं है। इसमें अपने अस्तित्व से भी प्रेम मिलता है। जो विद्रोह की शक्ल में आता है। कविताएं उस घटाटोप पर तड़ित प्रहार करती हैं जिसे एक स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व पर ओढ़ाया गया है।  कविता संग्रह 'लड़की कैक्टस थी' में शामिल ज्यादातर कविताएं स्मृतियों, स्वप्न और पीड़ा की कविताएं हैं। इन्हें पढ़ते हुए एक कथन याद आ जाता है कि मनुष्य स्मृतियों से बना है। मांस, मज्जा तो सिर्फ उसका ढ़ांचा हैं। प्राण तो स्मृतियां ही हैं। दीप्ति की कविताओं में विभिन्न प्रकार की स्मृतियां हैं। जिनसे हम लगभग प्रतिदिन गुजरते हैं।  स्मृति में कितनी बैलगाड़ियां दर्ज हैं अ

एक 'कटोरा' जिज्ञासा

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38 मिलियन डॉलर में नीलाम चीन का कटोरा  फेसबुक पर पिछले दिनों कटोरी/कटोरा ने काफी सुर्खियां बटोरी। कहा गया कि कटोरी तक के मोह से ग्रसित स्त्रियां बुद्धत्व हासिल नहीं कर सकतीं। यह बात बाकी बहुत सारी बातों की तरह ही आई और गई हो गई। लेकिन इस बेहद आम पात्र के बारे में थोड़ी जिज्ञासा जागी। दिलचस्प बात है कि कटोरा तो बुद्ध ने भी नहीं छोड़ा था। बल्कि भिक्षाटन करने वाले भिक्षु/भिक्षुणियों के लिए चंद अनिवार्य चीजों में से थी। कहते तो यह भी हैं कि बुद्ध के शिष्य आनंद के कटोरे में चील के पंजे से मांस का टुकड़ा न गिरता तो बौद्ध धर्म में मांस खाने की अनुमति न मिलती। बुद्धत्व हासिल करने के लिए भूखे-प्यासे तप कर रहे सिद्धार्थ को सुजाता के हाथों एक कटोरा खीर खाकर ही मध्यम मार्ग अपनाने का रास्ता मिल गया और वह बुद्ध बन गए। एक बेहद आम कहावत सुनने को मिलती है, 'कटोरा लेकर भीख मांगना'। यह नहीं मालूम कि यह कहावत कब से शुरू हुई। शायद बौद्ध धर्म के पतन के बाद दीन-हीन बौद्ध भिक्षुओं को देखने के बाद शुरू हुई हो। एक तरफ कटोरे को भिक्षा पात्र के दौर पर देखा जाता है तो दूसरी ओर माएं बच्चों के लिए चंदा मामा

'आमनामा' में आम के खास चर्चे

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साभार : गूगल  वै ज्ञानिकों के बीच मैंजीफेरा इंडिका के नाम से पहचाने जाने वाले आम की बात शुरू कहां से की जाए, यह तय करना थोड़ा मुश्किल है। बचपन के दिनों में तेज हवा चलने के समय या आंधी आने के बाद आम के पेड़ों के नीचे भागने की यादों से या बड़े होने पर आम से जुड़ी राजनीतिक, कूटनीतिक और साहित्यिक किस्से-कहानियों से। आम की चर्चा एक पुराण जितनी विस्तृत है। इन दिनों आम की एक चर्चा बीबीसी हिंदी के पूर्व ब्रॉडकास्टर परवेज आलम साहब ने 'सिने इंक' पर मेहर-ए-आलम साहब के साथ छेड़ रखी है। अब तक सात एपिसोड पूरे कर चुकी इस पॉडकास्ट सीरीज ' आमनामा ' में आम के विभिन्न आयामों पर विस्तृत चर्चा हो चुकी है। शायद आम ही एक मात्र ऐसा फल है जो भारत-पाकिस्तान ही नहीं, अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप में भी जिसपर भरपूर राजनीति होती है। अच्छे-बुरे कूटनीतिक संबंध तय होते हैं।  भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का अपने समकक्ष राष्ट्राध्यक्षों को आम खाना सिखाना हो या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इंटरव्यू में 'आम कैसे खाते हैं' सवाल पूछा जाना। कितना विस्तृत फलक है इस एक फल का।  थोड़ा सा आम क

'वोदका डायरीज'

आज नेटफ्लिक्स पर फिल्म 'वोदका डायरीज' देखी. के. के मेनन, शारिब हाशमी, मंदिरा बेदी और राइमा सेन की मुख्य भूमिका है. मुख्यतया एक क्राइम और सस्पेंस थ्रिलर फिल्म है. लेकिन आखिर में पूरी कहानी उलट जाती है और पता चलता है कि यह एक साइको थ्रिलर है. इनसेंटिव ऑब्सेसिव आइडेंटिफिकेशन डिसॉर्डर नाम की एक मानसिक बीमारी पर आधारित है. जिसमें व्यक्ति किसी काल्पनिक कैरेक्टर को जीने लगता है. हालांकि गूगल करने पर इस बीमारी के बारे में कुछ पता नहीं चला.  एक एसीपी मनाली में ' कुछ मर्डर मिस्ट्री सुलझाने की कोशिश करता है और उसमें बुरी तरह उलझता जाता है. फिल्म जबर्दस्त थ्रिल और सस्पेंस से भरी हुई है. कहानी बिखरी होने के बावजूद स्क्रीन से नजर नहीं हटती.  के.के मेनन हमेशा की तरह बेजोड़ हैं. शारिब हाशमी भी शानदार हैं. मंदिरा बेदी की एक्टिंग कहीं-कहीं लाउड है.  अगर फिल्म के लिए बीमारी नहीं गढ़ी गई है तो अच्छे और दिलचस्प मुद्दे पर फिल्म बनी है. लेकिन बीमारी की बजाए पूरी फिल्म मर्डर मिस्ट्री में खप जाती है. बीमारी को थोड़ा और स्पेस मिलना चाहिए था. बहुत कम या कहें दिया ही नहीं गया है. एक लेखक है, जो मर्डर

बाबा ने स्पीति की बारिश से सराबोर कर दिया

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    curtsy :Google, key monastery  -----------------------------------------------------  नौकरी से भारी ऊब वाले समय से जब एक बार फिर गुजर रहा हूं तो भागकर 'हिमालय' चले जाने का मन हो रहा है़. ऐसे में एक उनीदे से साप्ताहिक अवकाश वाले दिन अपने से करीब 800 किलोमीटर दूर हिमाचल की स्पीति घाटी को याद कर रहा हूं. उसकी कल्पना में खोया हूं. बाबा कृष्णनाथ की हिमालयी यात्राओं के पन्ने फिर से पलट रहा हूं. हम सब हिमालय को तपस्या की भूमि मानते हैं और तपस्या जीवन का आखिरी काम है. हालांकि 'हिमालय' भाग जाना मैं कहीं दूर चले जाने के संदर्भ में इस्तेमाल करता हूं. हिमालय भले ही क्यों न मेरे से हजार किलोमीटर दूरी पर ही हो.अवचेतन में धरती के आखिरी छोर पर है लेकिन बाबा की हिमालय यात्रा त्रयी से गुजरने के बाद मेरा दिल कम से कम 'की' मोनेस्ट्री या गोनपा पर तो आ ही गया है.  यात्रा त्रयी का पहला हिस्सा ' स्पीति में बारिश' है. बाबा प्राकृतिक रूप से शुष्क स्पीति घाटी में बारिश खोजते हैं. वे यहां सराबोर हो जाते हैं ज्ञान की, स्नेह की, परंपरा की और मानवीय रिश्तों की बारिश से

...दुनिया इतनी भी बुरी नहीं है अभी

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मैं कई दिन से सोच रहा हूं कि हर दिन काम करते हुए इतनी सारी न्यूज पढ़ी जाती हैं। सीरिया में बम फूट गए, अमेरिका में मॉस शूटिंग हो गई। कोई दो देश धोती खुंटियाए जंग करने पर आमादा हैं। बहुत कुछ ऐसा होता है। हम दुनिया को संवेदनशील होने का पाठ पढ़ाते हैं और खुद अपनी संवेदना गंवाते जा रहे हैं। कई बार यह भी लगता है कि हमारी संवेदना थक गई है। कोई इस बात पर आपत्ति जाहिर कर सकता है कि क्या संवेदना भी थक सकती है ? लेकिन मुझे तो ऐसा ही लगता है। कई बार खबरें पढ़कर आंखें थोड़ी भी नम हो जाती हैं। ऐसी ही एक खबर मिली न्यूयॉर्क टाइम्स पर। यह समाचार पूर्वी जर्मनी के एक गांव गोल्जओ का है। कभी कम्युनिस्ट शासन के अंतर्गत रहे पूर्वी जर्मनी का यह गांव भी बाकी हिस्सों की तरह विस्थापन की मार झेल रहा है। साल 2015 में जब शरणार्थी संकट अपने उफान पर था। सीरिया से हजारों की संख्या में लोग जर्मनी में शरण पाने की कोशिश कर रहे थे तो गोल्जओ में भी 16 सीरियाई परिवारों को स्थानीय मेयर ने बसाया। शुरुआत में स्थानीय लोगों ने नाक भौं सिकोड़ी। लेकिन जल्द ही उन्होंने स्वीकार कर लिया। यहां के स्थानीय स्कूल में पहली कक्षा में जाने वा

एक नदी की सांस्कृतिक यात्रा और जीवन दर्शन का अमृत है 'सौंदर्य की नदी नर्मदा'

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यात्रा वृतांत  पढ़ना कुछ हद तक उस स्थिति में तृप्ति दायक है जब यात्राएं करना किसी वजह से संभव न हों। पढ़ते वक्त शारीरिक न सही पर मानसिक रूप से लेखक के साथ पाठक भी यात्रा तो कर ही रहा होता है। 'सौंदर्य की नदी नर्मदा' ऐसा ही एक यात्रा वृतांत है, जिसमें अमृतलाल वेगड़ मध्य और पश्चिम भारत को सींचने वाली हिमालय से भी पुरानी नदी नर्मदा के तट की परिक्रमा पर ले जाते हैं। मन और कर्म से कलाकार वेगड़ जी ने नमर्दा के अनुपम सौंदर्य का चित्र शब्दों के जरिए खीचा है। किस तरह नर्मदा ने अपने जल से पत्थरों कों हजारों वर्ष में तराश कर मॉर्डन शिल्प में बदल दिया है, खिले हुए फूल की तरह झरने, सब कुछ उन्होंने रंग और ब्रुश की बजाए कलम से चित्रित किया है। एक और बात, यह वृतांत सिर्फ नमर्दा के स्थूल सौंदर्य का वर्णन भर नहीं बल्कि सांस्कृतिक दस्तावेजीकरण भी है। वेगड़ जी के यात्रा वृतांत से पहले तो किताब शुरू करते ही उसकी भूमिका का रसास्वादन मिलता है। मोहनलाल वाजपेयी जी ने क्या खूबसूरत भूमिका लिखी है। वे भूमिका में लिखते हैं, विचित्र नहीं यदि ऐसी अद्वितीया, पुण्योत्मा, शिव की आनंद विधायिनी, सार्थक नाम्ना श्र